प्रात: की प्रथम किरण से भेष पाकर,
ओज की प्रथम छुअन से प्राण लाकर,
जिस परछाई ने मुझमें प्रवेश किया था,
एक मध्याह्न की तेज़ धूप ने उसे एक पल में,
जला कर भस्म कर दिया था |
अब वो लंबी उदार परछाइयाँ तो याद नहीं पड़ती,
जो कभी आगे-आगे मार्गदर्शक बन कर चलती थीं,
पर वो दोपहर की बौनी परछाइयाँ,
जो मेरा हाथ पकड़ कर साथ चलती थी,
बातें किया करती थीं, बहुत याद आती हैं |
सायं कल के डूबते सूरज से प्रश्न तो नहीं कर सकता,
पर उन बिछुड़ती, दूर चली जाती -
लंबी ओझल होती परछाइयों को,
एक अर्सा और ठहरने का आग्रह तो कर ही सकता हूँ |
कुछ क्षण अगर वह मुझसे दूर ही सही पर ठहर जाती,
तो इस निस्तब्ध अकेली रात्रि का मोल,
उसकी आन कुछ कम हो जाती क्या?
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